Friday 26 September 2014

बसों की जरूरत




शराब और बस

Saturday,Jul 26,2014

दिल्ली परिवहन निगम की बसों का हाल तो सभी को पता है। दिल्ली में बसों की भारी कमी है। शहर में करीब 11 हजार बसों की जरूरत है जबकि अभी सिर्फ 5000 बसें मौजूद हैं। इसी कमी को पूरा करने के लिए सरकार शराब पर अधिभार लगाकर बसें खरीदने का नायाब तरीका ढूंढ़ रही है। अभी तक यह प्रस्ताव है और उपराज्यपाल नजीब जंग से मंजूरी मिलना बाकी है। अगर इसकी मंजूरी मिल जाती है तो इसे शानदार पहल कहा जाएगा। इस अधिभार से होने वाली कमाई का उपयोग परिवहन व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त बनाने के अलावा प्रदूषण की समस्या से निपटने पर भी करने का प्रस्ताव है।
बसों की कमी के कारण आए दिन यात्रियों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। दिल्ली में कई रूटों पर बसों की हालत इतनी खराब है कि कई बार तो यह चलते-चलते ही खराब हो जाती हैं और इसी वजह से जाम लग जाता है। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान राजधानी में काफी संख्या में बसें आई थीं लेकिन चार साल बाद काफी इसमें से काफी खराब हो चुकी हैं। यही नहीं पुराने बेड़े में से काफी बसें बेकार हो चुकी हैं। दिल्ली की आबादी भी लगातार बढ़ रही है और इसके हिसाब से राजधानी में काफी संख्या में बसों की जरूरत है। सरकार द्वारा यह सुनिश्चित किया जाना बेहद जरूरी है कि लोगों को हर रूट में पर्याप्त संख्या में और अच्छी बसें मिलें। यह सुनिश्चित करने के लिए नई बसों की जरूरत होगी और नई बसों को खरीदने के लिए धन की आवश्यकता होगी। इस स्कीम के तहत धन एकत्रित करना एक शानदार पहल है। यहीं नहीं इस तरीके की और योजनाएं लानी चाहिए और अधिकारियों को आदेश देना चाहिए कि नई-नई स्कीम बनाकर सरकार के सामने रखें। अगर अधिकारी प्रेरित होंगे तो अच्छी योजनाएं आएंगी और अंतत: जनता को फायदा मिलेगा। दिल्ली में निजी वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण यहां के लोगों को सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल के प्रति प्रेरित किया जा रहा है। बसों की कमी इस राह में बड़ी बाधा बन रही है। इसमें संदेह नहीं कि यदि दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना है तो इसके लिए मेट्रो के विस्तार के साथ ही डीटीसी के बेड़े को भी सशक्त बनाना होगा। परिवहन विभाग को दिल्ली परिवहन निगम में बसों की कमी दूर करनी चाहिए और नई बसें शामिल कर खटारा और पुरानी हो चुकी बसों से मुक्ति पानी चाहिए। इस रास्ते में ऐसी योजनाएं चार चांद लगा सकती हैं।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]

परिवहन की तस्वीर




दुखद उदासीनता

Wednesday,Jul 30,2014

लुंज-पुंज तरीके से चल रहे राज्य के परिवहन महकमे को देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि शीर्ष पदों पर बैठे लोग एकदम से डुबाने पर लग गए हैं। जन सुविधा और राज्य राजस्व के लिहाज से इस अत्यंत उपयोगी विभाग से जन सुविधा नामक तत्व लगभग खत्म हो चुका है, जबकि राजस्व का हाल भी बुरा ही है। सबसे अधिक दुखद स्थिति यह कि अपने कर्मचारियों के प्रति भी हद दर्जे की लापरवाही बरती जा रही है। जो कर्मी सेवानिवृत्त हो चुके हैं, उनके नाम से जारी पावने का भुगतान नहीं हो पाने से दुखद और क्या हो सकता है? सेवानिवृत्त लोग उम्रदराज होते हैं और उनकी शारीरिक क्षमता अपेक्षाकृत क्षीण रहती है, जबकि पारिवारिक बोझ में कोई कमी नहीं रहती। ऐसे समय में जवानी और प्रौढ़ावस्था में की गई बचत ही काम आती है। यही रकम ग्रेच्युटी, पेंशन आदि के रूप में भुगतान की जाती है। इसके लिए सख्त प्रावधान होने के बावजूद केवल इस कारण भुगतान न हो पाना कि इस मसले के जानकार कर्मी नहीं हैं, निराशा ही पैदा करती है। इसी कारण कम से कम छह लोग चल बसे। फिर भी महकमे की नींद नहीं खुलना अत्यंत घातक है। सरकार को इस विषय को गंभीरता से लेना चाहिए, अन्यथा कर्मियों का उसके प्रति तो विश्वास भंग होगा ही, उनके सगे-संबंधियों के अलावा अन्य लोग भी गलत धारणा पालने को विवश हो जाएंगे।
यह कितने आश्चर्य की बात है कि इस महकमे के अंतर्गत यात्री बसों का परिचालन लगभग बंद हो गया, जबकि राजस्व संग्रह के नाम पर निजी हितों का अधिक ध्यान रखा जाता है। जो रकम राजकोष में जानी चाहिए, वह कुछ लोगों की तिजोरियों में डाल दी जा रही है। इन दोनों कारणों से आम अवाम में गलत धारणा तो बन ही गई है, अपने कर्मियों के प्रति बरती जा रही उपेक्षा कभी विस्फोटक रूप भी धारण कर सकती है। निश्चय ही यह सारा वितंडावाद अधिकारियों के स्तर पर है, लेकिन इससे सरकार बच नहीं जाती। अंतत: सारी व्यवस्था उसके ही हाथों में रहती है। इसलिए उसकी जवाबदेही कम नहीं हो जाती। बात सार्वजनिक हो जाने के बावजूद यदि सरकार कान में तेल डाले सोए रहेगी तो यह स्थिति अधिक खतरनाक हो जाएगी। कल्याणकारी सरकार की सार्थकता इसी में साबित होती है कि वह अवाम के साथ-साथ अपने कर्मचारियों-अधिकारियों का भी पूरा-पूरा ख्याल रखे, जबकि परिवहन महकमे में चल रही गतिविधियों से ऐसा महसूस नहीं होता।
[स्थानीय संपादकीय: झारखंड]
---------------------

परिवहन की तस्वीर

जनसत्ता 21 अगस्त, 2014 : हमारे देश में परिवहन व्यवस्था की जिम्मेदारियां अलग-अलग महकमों में बंटी हुई हैं और उनके बीच आपसी तालमेल ठीक नहीं रहा है। इसके चलते अक्सर परेशानियों का सामना करना पड़ता है। फिर बदलती स्थितियों के मुताबिक मोटर वाहन अधिनियम में अपेक्षित बदलाव न हो पाने के कारण सड़कों पर पैदा होने वाली समस्याओं को रोकना मुश्किल बना हुआ है। वाहनों के पंजीकरण, वाहन चलाने का लाइसेंस जारी करने आदि में इस कदर भ्रष्टाचार है कि आरटीओ यानी क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय उगाही के अड्डे बन गए हैं। ये बातें खुद केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने स्वीकार करते हुए परिवहन-प्रशासन में सुधार का इरादा जताया है। उन्होंने आरटीओ को समाप्त कर लाइसेंस देने जैसे अधिकतर काम ऑनलाइन संपन्न कराने और यातायात पुलिस, परिवहन निगम, नगर निगम सहित सभी संबंधित एजेंसियों को भू-परिवहन प्राधिकरण नामक एक नए महकमे के अधीन लाने की घोषणा की है। आरटीओ के कामकाज पर लंबे समय से अंगुलियां उठती रही हैं। वाहन चलाने का लाइसेंस जारी करने और वाहनों के पंजीकरण आदि में खुली रिश्वतखोरी चलती है। बिना यह जांचे कि किसी व्यक्ति को ठीक से वाहन चलाना आता है या नहीं, कोई व्यक्ति भारी वाहन चलाने के योग्य है या नहीं, बिचौलियों के जरिए या सीधे रिश्वत लेकर उसे लाइसेंस जारी कर दिया जाता है। यह काम कराने वाले कई बिचौलिए तो विज्ञापन देकर ग्राहकों को लुभाने की हद तक चले जाते हैं। यह गोरखधंधा पुराने वाहनों को अतिरिक्त समय तक चलाने का प्रमाणपत्र जारी करने   में भी देखा जाता है। इसी का नतीजा है कि अनाड़ी चालकों और सड़क पर चलने के लायक नहीं रह गई गाड़ियों की तादाद बढ़ती जाती है, जो सड़क-दुर्घटनाओं की एक बड़ी वजह है। बसों में निर्धारित क्षमता से अधिक सवारियों को चढ़ाना और ट्रकों में ज्यादा सामान लादना, तय सीमा क्षेत्र से बाहर तक चले जाना फितरत बन गई है। ‘अघोषित नियम’ के तहत आरटीओ और यातायात पुलिस को कुछ ले-देकर इन मामलों का आसानी से निपटारा हो जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में हर ट्रक चालक साल में करीब अस्सी हजार रुपए रिश्वत देता है। यानी करीब बाईस हजार करोड़ रुपए हर साल इस तरह घूस में जाते हैं। ऐसे में परिवहन व्यवस्था को सुधारने में आरटीओ को समाप्त करने का फैसला एक अच्छा कदम हो सकता है। विदेशों की नकल पर हमने तेज-रफ्तार गाड़ियों के चलने लायक सड़कें, उपरिगामी सेतु, सुरंगी सड़कें आदि तो बनाना शुरू कर दिया है, पर गाड़ी चलाने और यातायात नियमों, मोटर वाहन कानूनों के पालन का सलीका चलन में नहीं ला पाए हैं। यही वजह है कि सड़क दुर्घटनाओं के मामले में हमारा देश दुनिया में पहले नंबर पर है। विकसित देशों में भारी वाहन चलाने का लाइसेंस हासिल करना खासा कठिन होता है, मगर हमारे यहां कोई भी ट्रक और बस का चालक बन जाता है। ऐसे चालकों की भी कमी नहीं है, जो बिना लाइसेंस के बेरोकटोक वाहन चलाते हैं। आरटीओ को भंग करने से इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की उम्मीद की जा सकती है। प्रस्तावित महकमे की जिम्मेदारी केवल लाइसेंस, परमिट आदि जारी करने के अलावा सड़कों की देखभाल, मरम्मत, कानून का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कार्रवाई, परिचालन पर निगरानी आदि की भी होगी। मगर पूरी योजना का खाका अभी साफ तौर पर सामने आना बाकी है। इसलिए फिलहाल कहना मुश्किल है कि परिवहन-प्रशासन का सिर्फ ढांचा बदलेगा या उसका चरित्र भी।
----------------------

सार्वजनिक परिवहन पर जोर

Sun, 14 Sep 2014

राजधानी में प्रदूषण का स्तर कम करने और जाम से निपटने के उद्देश्य से दिल्ली सरकार द्वारा लिए गए फैसले स्वागतयोग्य हैं। ये फैसले राजधानी की इन दो प्रमुख समस्याओं से निपटने के लिए नए सिरे से किए जा रहे प्रयासों के तौर पर देखे जा सकते हैं और ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि यदि इन पर ठीक से अमल हुआ तो स्थिति में सुधार अवश्य नजर आएगा। दिल्ली सरकार ने शुक्रवार को ट्रकों के दिल्ली से गुजरने पर पाबंदी लगाने का फैसला कर यह साफ कर दिया है कि जो ट्रक दिल्ली से होते हुए एक राज्य से दूसरे राज्य को जाते थे, उन्हें राजधानी की सीमा के भीतर प्रवेश नहीं मिलेगा। यही नहीं, सरकार सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देगी। इसके लिए शहरी यातायात कोष बनाया जाएगा जिसके लिए सिगरेट के हर पैकेट और शराब की हर बोतल पर एक रुपये अधिभार लगाया जाएगा। यह सही है कि सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने से हालात सुधरेंगे लेकिन दिल्ली में इसे बढ़ावा देने की बात कोई नई नहीं है। पूर्व में शीला दीक्षित सरकार भी इस पर जोर देती रही है लेकिन इसे पूरी इच्छाशक्ति के साथ अमल में लाना अब भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। वर्ष 2000 से 2010 के दौरान वायु प्रदूषण को लेकर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान , दिल्ली द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि इन दस वर्षो में राजधानी में वायु प्रदूषण के स्तर में काफी वृद्धि हुई है। दोपहिया वाहनों की तेजी से बढ़ती संख्या यहां वायु प्रदूषण में वृद्धि का प्रमुख कारण बन रही है। मौजूदा समय में दिल्ली में करीब 54 लाख दोपहिया वाहन पंजीकृत हैं जो यहां कुल पंजीकृत वाहनों का 60 फीसद है। यही नहीं, राजधानी में पंजीकृत कुल वाहनों की संख्या तीन अन्य महानगरों चेन्नई, मुंबई और कोलकाता की सम्मिलित वाहनों की संख्या से भी अधिक है। ऐसे में यह आवश्यक है कि सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को सुदृढ़ करने पर तत्काल जोर दिया जाए और दिल्लीवासियों को निजी वाहनों का प्रयोग करने के प्रति हतोत्साहित किया जाए। इसके लिए सरकार को लोगों को उनके घर, बाजार और कार्यालय के पास सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध कराने की दिशा में पूरी इच्छाशक्ति से प्रयास करने चाहिए। सार्वजनिक परिवहन सुविधाजनक होगा तो इसमें संदेह नहीं कि अधिकाधिक लोग निजी वाहनों का त्याग कर सार्वजनिक परिवहन अपनाएंगे।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]
-----------------

मनमानी के विरुद्ध

जनसत्ता 16 सितंबर, 2014: यातायात-नियमों की अनदेखी पर जुर्माने के प्रावधान का अपेक्षित असर नजर नहीं आता। इसके मद्देनजर समय-समय पर जुर्माने की रकम बढ़ाई गई और कारावास की सजा आदि के कड़े नियम बनाए गए, पर उसका भी कोई खास नतीजा आ पाया। सड़क दुर्घटनाओं में लोगों के मारे जाने के आंकड़े हर साल कुछ बढ़े हुए नजर आते हैं। इस मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है। हमारे यहां सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों की सबसे बड़ी वजह लोगों का यातायात-सुरक्षा के नियमों का पालन न करना है। बहुत सारे लोग इन नियमों को तोड़ना जैसे अपनी शान समझते हैं। फिर लाल बत्ती पार कर जाने, गाड़ी चलाते समय मोबाइल फोन पर बात करने, हेलमेट न पहनने, नशे में या तेज रफ्तार से गाड़ी चलाने, तय संख्या से अधिक लोगों को बिठाने, बगैर लाइसेंस या पंजीकरण के वाहन चलाने आदि पर जुर्माने की रकम इतनी कम है कि बहुत-से इसकी परवाह नहीं करते और जुर्माना चुका कर अपनी पुरानी आदतें जारी रखते हैं। इसलिए कुछ साल पहले नियम बना कि यातायात-नियमों के उल्लंघन पर वाहन चालक के लाइसेंस को मशीन में डाल कर चिह्नित किया जाएगा। तीन बार से अधिक उल्लंघन करने पर लाइसेंस रद््द कर दिया जाएगा। पर इसका भी बहुत असर नहीं दिखाई दे रहा। यही वजह है कि केंद्र सरकार ने सड़क यातायात एवं सुरक्षा विधेयक में संशोधन का प्रस्ताव किया है। प्रस्तावित कानून के मुताबिक यातायात-नियमों के गंभीर उल्लंघन पर चालक को महज जुर्माना अदा करने और कुछ समय जेल में गुजारने से मुक्ति नहीं मिल सकेगी, बल्कि उसका लाइसेंस पांच साल तक के लिए रद्द किया जा सकता है। प्रस्तावित कानून के तहत यातायात-नियमों के उल्लंघन का ब्योरा केंद्रीय स्तर पर दर्ज किया जा सकेगा। वाहन चालक के लाइसेंस को मशीन में चिह्नित किया जाएगा। हर गलती पर एक से लेकर चार अंक तक जुड़ते जाएंगे और बारह अंक होते ही लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा। पर समस्या यह है कि इस नियम के तहत उन्हीं लाइसेंसों को चिह्नित किया जा सकेगा, जो इलेक्ट्रॉनिक तकनीक से बनाए गए हैं। यह तकनीक पूरे देश में तो दूर, दिल्ली में ही ठीक से काम नहीं कर पा रही है। बहुत सारे राज्यों में अब भी कागज वाले लाइसेंस चलन में हैं। जो लोग दूसरे राज्यों से ऐसा लाइसेंस बनवा कर दिल्ली आते और वाहन चलाते हैं, उनके लाइसेंस को चिह्नित करना कैसे संभव होगा? फिर बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि खुद यातायात पुलिस प्रस्तावित कानूनों के अमल में कितनी संजीदगी दिखाती है। यातायात नियमों के उल्लंघन की प्रवृत्ति बढ़ती जाने के पीछे काफी हद तक यातायात पुलिस की लापरवाही भी रही है। ज्यादातर मामलों में उचित कार्रवाई के बजाय कुछ ले-देकर मामले को रफा-दफा करने का चलन-सा बनता गया है। इसलिए भी लोगों में नियम-कायदों की अनदेखी की फितरत पनपी है। तय सीमा से अधिक बार नियम तोड़ने पर लाइसेंस रद््द करने का प्रावधान पहले से लागू है, मगर उसके अपेक्षित नतीजे नहीं आ पाए हैं। पहले पूरे देश में यातायात और सुरक्षा संबंधी स्थितियों पर विचार करते हुए इस महकमे से जुड़े लोगों को और जवाबदेह बनाना होगा, तभी सड़कों पर अनुशासन और बेहतर सुरक्षा का भरोसा पैदा किया जा सकेगा।
--------------------

सड़क सुरक्षा

Wed, 24 Sep 2014

अनुशासित नागरिकों के लिए यह समाचार सुखद है कि अपना प्रदेश सड़क सुरक्षा नीति लागू करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। नई नीति में उत्तर प्रदेश राज्य सड़क सुरक्षा परिषद का गठन किया गया है जिसके अध्यक्ष खुद मुख्यमंत्री होंगे। सौ करोड़ का सड़क सुरक्षा कोष बनाया गया है जिसका उद्देश्य सड़क दुर्घटनाओं के पीड़ितों की मदद करना होगा। ऐसी ही कुछ अन्य बातें भी नीति में शामिल की गई हैं। यह बात शायद ही किसी को बताने की जरूरत हो कि आज सड़क पर निकलना अपने आप में कितना जोखिम भरा हो गया है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में रोज करीब तीन सौ लोग सड़क हादसों का शिकार होकर मौत के मुंह में चले जाते हैं। इसी अनुपात में अनुमान लगा सकते हैं कि कितने लोग अंग-भंग का शिकार होते होंगे और कितने घुटने तुड़वाकर घर पहुंचते होंगे। ऐसे में यदि प्रदेश सरकार सड़क सुरक्षा के प्रति सजग हुई है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। यद्यपि इसमें संदेह है कि नीति लागू करने भर से सड़क दुर्घटनाएं बंद हो जाएंगी या बिल्कुल कम हो जाएंगी। सड़क सुरक्षित हो इसके लिए नीति-नियम पालन करने वाले सजग नागरिकों और क्रियान्वयन एजेंसियों की इच्छाशक्ति पर बहुत कुछ निर्भर करता है।
यदि पहले से ही लागू नियम-कानूनों का सही तरह से पालन किया और कराया जा सके तो भी सड़क हादसों की समस्या काफी कम हो सकती है लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा है नहीं। नागरिकों को पता है कि नियमों को तोड़ते हुए पकड़े गए तो रिश्वत-सिफारिश से छूट ही जाएंगे। क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार सरकारी कर्मचारियों को पता है कि ऊपर से आयी सिफारिश पर छोड़ने से अच्छा है कि कुछ लेकर अभी छोड़ना बेहतर। तलाशें तो ऐसे मामले खोजना मुश्किल हो जाएगा जहां किसी ट्रैफिक सिपाही अथवा निरीक्षक को अपना काम सही ढंग से न करने पर दंडित किया गया हो जबकि ऐसे मामले आसानी से मिल जाएंगे जहां सिफारिश न मानने पर तबादला अथवा निलंबन किया गया हो। सुरक्षित सड़क चाहिए तो यह धारणा बदलनी होगी। यह तब होगा जब सबसे निचले स्तर का कर्मचारी अपने कर्तव्य के प्रति स्वयं को सजग और कर्तव्य पालन में की गई सख्ती पर सुरक्षित महसूस करेगा। एक पहिये पर बाइक उठाकर स्टंट करने वालों पर सख्ती के लिए जब मुख्यमंत्री को कहना पड़े तो समझा जा सकता है कि उदासीनता कितनी गहरी है। यही उदासीनता दूर करनी होगी।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]