Friday 26 September 2014

बसों की जरूरत




शराब और बस

Saturday,Jul 26,2014

दिल्ली परिवहन निगम की बसों का हाल तो सभी को पता है। दिल्ली में बसों की भारी कमी है। शहर में करीब 11 हजार बसों की जरूरत है जबकि अभी सिर्फ 5000 बसें मौजूद हैं। इसी कमी को पूरा करने के लिए सरकार शराब पर अधिभार लगाकर बसें खरीदने का नायाब तरीका ढूंढ़ रही है। अभी तक यह प्रस्ताव है और उपराज्यपाल नजीब जंग से मंजूरी मिलना बाकी है। अगर इसकी मंजूरी मिल जाती है तो इसे शानदार पहल कहा जाएगा। इस अधिभार से होने वाली कमाई का उपयोग परिवहन व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त बनाने के अलावा प्रदूषण की समस्या से निपटने पर भी करने का प्रस्ताव है।
बसों की कमी के कारण आए दिन यात्रियों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। दिल्ली में कई रूटों पर बसों की हालत इतनी खराब है कि कई बार तो यह चलते-चलते ही खराब हो जाती हैं और इसी वजह से जाम लग जाता है। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान राजधानी में काफी संख्या में बसें आई थीं लेकिन चार साल बाद काफी इसमें से काफी खराब हो चुकी हैं। यही नहीं पुराने बेड़े में से काफी बसें बेकार हो चुकी हैं। दिल्ली की आबादी भी लगातार बढ़ रही है और इसके हिसाब से राजधानी में काफी संख्या में बसों की जरूरत है। सरकार द्वारा यह सुनिश्चित किया जाना बेहद जरूरी है कि लोगों को हर रूट में पर्याप्त संख्या में और अच्छी बसें मिलें। यह सुनिश्चित करने के लिए नई बसों की जरूरत होगी और नई बसों को खरीदने के लिए धन की आवश्यकता होगी। इस स्कीम के तहत धन एकत्रित करना एक शानदार पहल है। यहीं नहीं इस तरीके की और योजनाएं लानी चाहिए और अधिकारियों को आदेश देना चाहिए कि नई-नई स्कीम बनाकर सरकार के सामने रखें। अगर अधिकारी प्रेरित होंगे तो अच्छी योजनाएं आएंगी और अंतत: जनता को फायदा मिलेगा। दिल्ली में निजी वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण यहां के लोगों को सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल के प्रति प्रेरित किया जा रहा है। बसों की कमी इस राह में बड़ी बाधा बन रही है। इसमें संदेह नहीं कि यदि दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना है तो इसके लिए मेट्रो के विस्तार के साथ ही डीटीसी के बेड़े को भी सशक्त बनाना होगा। परिवहन विभाग को दिल्ली परिवहन निगम में बसों की कमी दूर करनी चाहिए और नई बसें शामिल कर खटारा और पुरानी हो चुकी बसों से मुक्ति पानी चाहिए। इस रास्ते में ऐसी योजनाएं चार चांद लगा सकती हैं।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]

परिवहन की तस्वीर




दुखद उदासीनता

Wednesday,Jul 30,2014

लुंज-पुंज तरीके से चल रहे राज्य के परिवहन महकमे को देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि शीर्ष पदों पर बैठे लोग एकदम से डुबाने पर लग गए हैं। जन सुविधा और राज्य राजस्व के लिहाज से इस अत्यंत उपयोगी विभाग से जन सुविधा नामक तत्व लगभग खत्म हो चुका है, जबकि राजस्व का हाल भी बुरा ही है। सबसे अधिक दुखद स्थिति यह कि अपने कर्मचारियों के प्रति भी हद दर्जे की लापरवाही बरती जा रही है। जो कर्मी सेवानिवृत्त हो चुके हैं, उनके नाम से जारी पावने का भुगतान नहीं हो पाने से दुखद और क्या हो सकता है? सेवानिवृत्त लोग उम्रदराज होते हैं और उनकी शारीरिक क्षमता अपेक्षाकृत क्षीण रहती है, जबकि पारिवारिक बोझ में कोई कमी नहीं रहती। ऐसे समय में जवानी और प्रौढ़ावस्था में की गई बचत ही काम आती है। यही रकम ग्रेच्युटी, पेंशन आदि के रूप में भुगतान की जाती है। इसके लिए सख्त प्रावधान होने के बावजूद केवल इस कारण भुगतान न हो पाना कि इस मसले के जानकार कर्मी नहीं हैं, निराशा ही पैदा करती है। इसी कारण कम से कम छह लोग चल बसे। फिर भी महकमे की नींद नहीं खुलना अत्यंत घातक है। सरकार को इस विषय को गंभीरता से लेना चाहिए, अन्यथा कर्मियों का उसके प्रति तो विश्वास भंग होगा ही, उनके सगे-संबंधियों के अलावा अन्य लोग भी गलत धारणा पालने को विवश हो जाएंगे।
यह कितने आश्चर्य की बात है कि इस महकमे के अंतर्गत यात्री बसों का परिचालन लगभग बंद हो गया, जबकि राजस्व संग्रह के नाम पर निजी हितों का अधिक ध्यान रखा जाता है। जो रकम राजकोष में जानी चाहिए, वह कुछ लोगों की तिजोरियों में डाल दी जा रही है। इन दोनों कारणों से आम अवाम में गलत धारणा तो बन ही गई है, अपने कर्मियों के प्रति बरती जा रही उपेक्षा कभी विस्फोटक रूप भी धारण कर सकती है। निश्चय ही यह सारा वितंडावाद अधिकारियों के स्तर पर है, लेकिन इससे सरकार बच नहीं जाती। अंतत: सारी व्यवस्था उसके ही हाथों में रहती है। इसलिए उसकी जवाबदेही कम नहीं हो जाती। बात सार्वजनिक हो जाने के बावजूद यदि सरकार कान में तेल डाले सोए रहेगी तो यह स्थिति अधिक खतरनाक हो जाएगी। कल्याणकारी सरकार की सार्थकता इसी में साबित होती है कि वह अवाम के साथ-साथ अपने कर्मचारियों-अधिकारियों का भी पूरा-पूरा ख्याल रखे, जबकि परिवहन महकमे में चल रही गतिविधियों से ऐसा महसूस नहीं होता।
[स्थानीय संपादकीय: झारखंड]
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परिवहन की तस्वीर

जनसत्ता 21 अगस्त, 2014 : हमारे देश में परिवहन व्यवस्था की जिम्मेदारियां अलग-अलग महकमों में बंटी हुई हैं और उनके बीच आपसी तालमेल ठीक नहीं रहा है। इसके चलते अक्सर परेशानियों का सामना करना पड़ता है। फिर बदलती स्थितियों के मुताबिक मोटर वाहन अधिनियम में अपेक्षित बदलाव न हो पाने के कारण सड़कों पर पैदा होने वाली समस्याओं को रोकना मुश्किल बना हुआ है। वाहनों के पंजीकरण, वाहन चलाने का लाइसेंस जारी करने आदि में इस कदर भ्रष्टाचार है कि आरटीओ यानी क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय उगाही के अड्डे बन गए हैं। ये बातें खुद केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने स्वीकार करते हुए परिवहन-प्रशासन में सुधार का इरादा जताया है। उन्होंने आरटीओ को समाप्त कर लाइसेंस देने जैसे अधिकतर काम ऑनलाइन संपन्न कराने और यातायात पुलिस, परिवहन निगम, नगर निगम सहित सभी संबंधित एजेंसियों को भू-परिवहन प्राधिकरण नामक एक नए महकमे के अधीन लाने की घोषणा की है। आरटीओ के कामकाज पर लंबे समय से अंगुलियां उठती रही हैं। वाहन चलाने का लाइसेंस जारी करने और वाहनों के पंजीकरण आदि में खुली रिश्वतखोरी चलती है। बिना यह जांचे कि किसी व्यक्ति को ठीक से वाहन चलाना आता है या नहीं, कोई व्यक्ति भारी वाहन चलाने के योग्य है या नहीं, बिचौलियों के जरिए या सीधे रिश्वत लेकर उसे लाइसेंस जारी कर दिया जाता है। यह काम कराने वाले कई बिचौलिए तो विज्ञापन देकर ग्राहकों को लुभाने की हद तक चले जाते हैं। यह गोरखधंधा पुराने वाहनों को अतिरिक्त समय तक चलाने का प्रमाणपत्र जारी करने   में भी देखा जाता है। इसी का नतीजा है कि अनाड़ी चालकों और सड़क पर चलने के लायक नहीं रह गई गाड़ियों की तादाद बढ़ती जाती है, जो सड़क-दुर्घटनाओं की एक बड़ी वजह है। बसों में निर्धारित क्षमता से अधिक सवारियों को चढ़ाना और ट्रकों में ज्यादा सामान लादना, तय सीमा क्षेत्र से बाहर तक चले जाना फितरत बन गई है। ‘अघोषित नियम’ के तहत आरटीओ और यातायात पुलिस को कुछ ले-देकर इन मामलों का आसानी से निपटारा हो जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में हर ट्रक चालक साल में करीब अस्सी हजार रुपए रिश्वत देता है। यानी करीब बाईस हजार करोड़ रुपए हर साल इस तरह घूस में जाते हैं। ऐसे में परिवहन व्यवस्था को सुधारने में आरटीओ को समाप्त करने का फैसला एक अच्छा कदम हो सकता है। विदेशों की नकल पर हमने तेज-रफ्तार गाड़ियों के चलने लायक सड़कें, उपरिगामी सेतु, सुरंगी सड़कें आदि तो बनाना शुरू कर दिया है, पर गाड़ी चलाने और यातायात नियमों, मोटर वाहन कानूनों के पालन का सलीका चलन में नहीं ला पाए हैं। यही वजह है कि सड़क दुर्घटनाओं के मामले में हमारा देश दुनिया में पहले नंबर पर है। विकसित देशों में भारी वाहन चलाने का लाइसेंस हासिल करना खासा कठिन होता है, मगर हमारे यहां कोई भी ट्रक और बस का चालक बन जाता है। ऐसे चालकों की भी कमी नहीं है, जो बिना लाइसेंस के बेरोकटोक वाहन चलाते हैं। आरटीओ को भंग करने से इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की उम्मीद की जा सकती है। प्रस्तावित महकमे की जिम्मेदारी केवल लाइसेंस, परमिट आदि जारी करने के अलावा सड़कों की देखभाल, मरम्मत, कानून का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कार्रवाई, परिचालन पर निगरानी आदि की भी होगी। मगर पूरी योजना का खाका अभी साफ तौर पर सामने आना बाकी है। इसलिए फिलहाल कहना मुश्किल है कि परिवहन-प्रशासन का सिर्फ ढांचा बदलेगा या उसका चरित्र भी।
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सार्वजनिक परिवहन पर जोर

Sun, 14 Sep 2014

राजधानी में प्रदूषण का स्तर कम करने और जाम से निपटने के उद्देश्य से दिल्ली सरकार द्वारा लिए गए फैसले स्वागतयोग्य हैं। ये फैसले राजधानी की इन दो प्रमुख समस्याओं से निपटने के लिए नए सिरे से किए जा रहे प्रयासों के तौर पर देखे जा सकते हैं और ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि यदि इन पर ठीक से अमल हुआ तो स्थिति में सुधार अवश्य नजर आएगा। दिल्ली सरकार ने शुक्रवार को ट्रकों के दिल्ली से गुजरने पर पाबंदी लगाने का फैसला कर यह साफ कर दिया है कि जो ट्रक दिल्ली से होते हुए एक राज्य से दूसरे राज्य को जाते थे, उन्हें राजधानी की सीमा के भीतर प्रवेश नहीं मिलेगा। यही नहीं, सरकार सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देगी। इसके लिए शहरी यातायात कोष बनाया जाएगा जिसके लिए सिगरेट के हर पैकेट और शराब की हर बोतल पर एक रुपये अधिभार लगाया जाएगा। यह सही है कि सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने से हालात सुधरेंगे लेकिन दिल्ली में इसे बढ़ावा देने की बात कोई नई नहीं है। पूर्व में शीला दीक्षित सरकार भी इस पर जोर देती रही है लेकिन इसे पूरी इच्छाशक्ति के साथ अमल में लाना अब भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। वर्ष 2000 से 2010 के दौरान वायु प्रदूषण को लेकर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान , दिल्ली द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि इन दस वर्षो में राजधानी में वायु प्रदूषण के स्तर में काफी वृद्धि हुई है। दोपहिया वाहनों की तेजी से बढ़ती संख्या यहां वायु प्रदूषण में वृद्धि का प्रमुख कारण बन रही है। मौजूदा समय में दिल्ली में करीब 54 लाख दोपहिया वाहन पंजीकृत हैं जो यहां कुल पंजीकृत वाहनों का 60 फीसद है। यही नहीं, राजधानी में पंजीकृत कुल वाहनों की संख्या तीन अन्य महानगरों चेन्नई, मुंबई और कोलकाता की सम्मिलित वाहनों की संख्या से भी अधिक है। ऐसे में यह आवश्यक है कि सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को सुदृढ़ करने पर तत्काल जोर दिया जाए और दिल्लीवासियों को निजी वाहनों का प्रयोग करने के प्रति हतोत्साहित किया जाए। इसके लिए सरकार को लोगों को उनके घर, बाजार और कार्यालय के पास सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध कराने की दिशा में पूरी इच्छाशक्ति से प्रयास करने चाहिए। सार्वजनिक परिवहन सुविधाजनक होगा तो इसमें संदेह नहीं कि अधिकाधिक लोग निजी वाहनों का त्याग कर सार्वजनिक परिवहन अपनाएंगे।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]
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मनमानी के विरुद्ध

जनसत्ता 16 सितंबर, 2014: यातायात-नियमों की अनदेखी पर जुर्माने के प्रावधान का अपेक्षित असर नजर नहीं आता। इसके मद्देनजर समय-समय पर जुर्माने की रकम बढ़ाई गई और कारावास की सजा आदि के कड़े नियम बनाए गए, पर उसका भी कोई खास नतीजा आ पाया। सड़क दुर्घटनाओं में लोगों के मारे जाने के आंकड़े हर साल कुछ बढ़े हुए नजर आते हैं। इस मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है। हमारे यहां सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों की सबसे बड़ी वजह लोगों का यातायात-सुरक्षा के नियमों का पालन न करना है। बहुत सारे लोग इन नियमों को तोड़ना जैसे अपनी शान समझते हैं। फिर लाल बत्ती पार कर जाने, गाड़ी चलाते समय मोबाइल फोन पर बात करने, हेलमेट न पहनने, नशे में या तेज रफ्तार से गाड़ी चलाने, तय संख्या से अधिक लोगों को बिठाने, बगैर लाइसेंस या पंजीकरण के वाहन चलाने आदि पर जुर्माने की रकम इतनी कम है कि बहुत-से इसकी परवाह नहीं करते और जुर्माना चुका कर अपनी पुरानी आदतें जारी रखते हैं। इसलिए कुछ साल पहले नियम बना कि यातायात-नियमों के उल्लंघन पर वाहन चालक के लाइसेंस को मशीन में डाल कर चिह्नित किया जाएगा। तीन बार से अधिक उल्लंघन करने पर लाइसेंस रद््द कर दिया जाएगा। पर इसका भी बहुत असर नहीं दिखाई दे रहा। यही वजह है कि केंद्र सरकार ने सड़क यातायात एवं सुरक्षा विधेयक में संशोधन का प्रस्ताव किया है। प्रस्तावित कानून के मुताबिक यातायात-नियमों के गंभीर उल्लंघन पर चालक को महज जुर्माना अदा करने और कुछ समय जेल में गुजारने से मुक्ति नहीं मिल सकेगी, बल्कि उसका लाइसेंस पांच साल तक के लिए रद्द किया जा सकता है। प्रस्तावित कानून के तहत यातायात-नियमों के उल्लंघन का ब्योरा केंद्रीय स्तर पर दर्ज किया जा सकेगा। वाहन चालक के लाइसेंस को मशीन में चिह्नित किया जाएगा। हर गलती पर एक से लेकर चार अंक तक जुड़ते जाएंगे और बारह अंक होते ही लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा। पर समस्या यह है कि इस नियम के तहत उन्हीं लाइसेंसों को चिह्नित किया जा सकेगा, जो इलेक्ट्रॉनिक तकनीक से बनाए गए हैं। यह तकनीक पूरे देश में तो दूर, दिल्ली में ही ठीक से काम नहीं कर पा रही है। बहुत सारे राज्यों में अब भी कागज वाले लाइसेंस चलन में हैं। जो लोग दूसरे राज्यों से ऐसा लाइसेंस बनवा कर दिल्ली आते और वाहन चलाते हैं, उनके लाइसेंस को चिह्नित करना कैसे संभव होगा? फिर बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि खुद यातायात पुलिस प्रस्तावित कानूनों के अमल में कितनी संजीदगी दिखाती है। यातायात नियमों के उल्लंघन की प्रवृत्ति बढ़ती जाने के पीछे काफी हद तक यातायात पुलिस की लापरवाही भी रही है। ज्यादातर मामलों में उचित कार्रवाई के बजाय कुछ ले-देकर मामले को रफा-दफा करने का चलन-सा बनता गया है। इसलिए भी लोगों में नियम-कायदों की अनदेखी की फितरत पनपी है। तय सीमा से अधिक बार नियम तोड़ने पर लाइसेंस रद््द करने का प्रावधान पहले से लागू है, मगर उसके अपेक्षित नतीजे नहीं आ पाए हैं। पहले पूरे देश में यातायात और सुरक्षा संबंधी स्थितियों पर विचार करते हुए इस महकमे से जुड़े लोगों को और जवाबदेह बनाना होगा, तभी सड़कों पर अनुशासन और बेहतर सुरक्षा का भरोसा पैदा किया जा सकेगा।
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सड़क सुरक्षा

Wed, 24 Sep 2014

अनुशासित नागरिकों के लिए यह समाचार सुखद है कि अपना प्रदेश सड़क सुरक्षा नीति लागू करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। नई नीति में उत्तर प्रदेश राज्य सड़क सुरक्षा परिषद का गठन किया गया है जिसके अध्यक्ष खुद मुख्यमंत्री होंगे। सौ करोड़ का सड़क सुरक्षा कोष बनाया गया है जिसका उद्देश्य सड़क दुर्घटनाओं के पीड़ितों की मदद करना होगा। ऐसी ही कुछ अन्य बातें भी नीति में शामिल की गई हैं। यह बात शायद ही किसी को बताने की जरूरत हो कि आज सड़क पर निकलना अपने आप में कितना जोखिम भरा हो गया है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में रोज करीब तीन सौ लोग सड़क हादसों का शिकार होकर मौत के मुंह में चले जाते हैं। इसी अनुपात में अनुमान लगा सकते हैं कि कितने लोग अंग-भंग का शिकार होते होंगे और कितने घुटने तुड़वाकर घर पहुंचते होंगे। ऐसे में यदि प्रदेश सरकार सड़क सुरक्षा के प्रति सजग हुई है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। यद्यपि इसमें संदेह है कि नीति लागू करने भर से सड़क दुर्घटनाएं बंद हो जाएंगी या बिल्कुल कम हो जाएंगी। सड़क सुरक्षित हो इसके लिए नीति-नियम पालन करने वाले सजग नागरिकों और क्रियान्वयन एजेंसियों की इच्छाशक्ति पर बहुत कुछ निर्भर करता है।
यदि पहले से ही लागू नियम-कानूनों का सही तरह से पालन किया और कराया जा सके तो भी सड़क हादसों की समस्या काफी कम हो सकती है लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा है नहीं। नागरिकों को पता है कि नियमों को तोड़ते हुए पकड़े गए तो रिश्वत-सिफारिश से छूट ही जाएंगे। क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार सरकारी कर्मचारियों को पता है कि ऊपर से आयी सिफारिश पर छोड़ने से अच्छा है कि कुछ लेकर अभी छोड़ना बेहतर। तलाशें तो ऐसे मामले खोजना मुश्किल हो जाएगा जहां किसी ट्रैफिक सिपाही अथवा निरीक्षक को अपना काम सही ढंग से न करने पर दंडित किया गया हो जबकि ऐसे मामले आसानी से मिल जाएंगे जहां सिफारिश न मानने पर तबादला अथवा निलंबन किया गया हो। सुरक्षित सड़क चाहिए तो यह धारणा बदलनी होगी। यह तब होगा जब सबसे निचले स्तर का कर्मचारी अपने कर्तव्य के प्रति स्वयं को सजग और कर्तव्य पालन में की गई सख्ती पर सुरक्षित महसूस करेगा। एक पहिये पर बाइक उठाकर स्टंट करने वालों पर सख्ती के लिए जब मुख्यमंत्री को कहना पड़े तो समझा जा सकता है कि उदासीनता कितनी गहरी है। यही उदासीनता दूर करनी होगी।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]


Wednesday 16 July 2014

परिवहन


राजमार्ग का विस्तार

केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि राज्यों की 7,200 किलोमीटर सड़कों को राष्ट्रीय राजमार्ग में शामिल किया जाए। इस तरह राष्ट्रीय राजमार्गो की कुल लंबाई लगभग 87,000 किलोमीटर हो जाएगी। यह आंकड़ा देश के क्षेत्रफल और आबादी को देखते हुए बहुत कम है, इसलिए हमें उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाली सरकार भी इस दिशा में ज्यादा सक्रिय होगी। सड़कों की कुल लंबाई के लिहाज से हमारा देश दुनिया में दूसरे नंबर पर है। हमारे यहां चीन जैसे विशाल देश से भी ज्यादा सड़कें हैं, लेकिन अगर सड़कों की गुणवत्ता की बात की जाए, तो हम लोग दुनिया के सबसे पिछड़े देशों में आते हैं। हमारे देश में कच्ची या मौसमी सड़कें ज्यादा हैं, पक्की और चौड़ी सड़कों का अनुपात बहुत कम है। इसमें भी अगर यह जाेड़ लिया जाए कि फोर लेन सड़कों में से कितनी अच्छी स्थिति में हैं, तो यह अनुपात और भी गिर जाएगा। राष्ट्रीय या राज्य राजमार्गो में भी हजारों किलोमीटर सड़कें बुरी हालत में हैं। फिर भी राजमार्ग बन जाने के बाद इस बात की संभावना काफी होती है कि सड़क की स्थिति सुधर जाए, इसलिए जितनी ज्यादा सड़कें राष्ट्रीय राजमार्ग बन जाएं, उतना ही बेहतर होगा। फिलहाल भारत में लगभग 47 लाख किलोमीटर सड़कें हैं, जिनमें से एक लाख किलोमीटर भी राष्ट्रीय राजमार्ग नहीं हैं। सड़कों का निर्माण और विस्तार लंबे वक्त तक भारतीय प्रशासन तंत्र की प्राथमिकताओं में नहीं रहा। भारत में वाहन उद्योग पर कड़े प्रतिबंध थे, इसलिए न वाहनों की तादाद ज्यादा बढ़ती थी, न सड़कों का विस्तार होता था। जब भारत में वाहन उद्योग का उदारीकरण हुआ और सड़कों पर ज्यादा वाहनों का दबाव महसूस होने लगा, तब सड़कों को आधुनिक बनाने की भी जरूरत महसूस हुई। इस नजरिये से अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में काफी तरक्की हुई, क्योंकि प्रधानमंत्री खुद इसमें दिलचस्पी ले रहे थे। देश के चारों महानगरों को राजमार्गो से जोड़ने की स्वर्णिम चतुर्भुज योजना इसी दौरान शुरू हुई। मगर संप्रग के राज में राष्ट्रीय राजमार्गो के विस्तार की गति धीमी पड़ गई, हालांकि कई राज्यों ने अपने यहां बेहतर सड़कें बनाने को प्राथमिकता दी। चूंकि ‘बीएसपी’ यानी बिजली-सड़क-पानी कई चुनावों में मुख्य मुद्दे बनकर आए, इसलिए भी सरकारों पर सड़कें बेहतर बनाने के लिए दबाव पड़ा। सड़कें बनाना अर्थव्यवस्था को तेज करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। सड़क निर्माण से खनन, सीमेंट, इस्पात जसे उद्योगों को भी प्रोत्साहन मिलता है और बड़े पैमाने पर कुशल और अकुशल रोजगार पैदा होते हैं। मगर सड़कों का विस्तार इसलिए मुश्किल भी है, क्योंकि इससे जमीन अधिग्रहण और पर्यावरण की पेचीदा उलझनों से गुजरना पड़ता है। इसीलिए अगर इस ताजा घोषणा को छोड़ दिया जाए, तो संप्रग के पूरे कार्यकाल में राष्ट्रीय राजमार्गों में सिर्फ 10,000 किलोमीटर की बढ़ोतरी हुई। राष्ट्रीय राजमार्गो के निर्माण में इन दिनों निजी-सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) का मॉडल बड़े पैमाने पर अपनाया जा रहा है। लेकिन पीपीपी मॉडल को अगर कामयाब होना है, तो इसमें पारदर्शिता और जवाबदेही जरूरी है। वरना
तरह-तरह के विवाद और घोटाले पैदा होंगे। महाराष्ट्र में टोल टैक्स विरोधी आंदोलन भले ही राजनीति से प्रेरित हो, लेकिन यह सरकार को भी मानना पड़ा कि सड़क बनाने और टोल टैक्स वसूलने के अनुबंधों में भारी गड़बड़ियां हैं। दिल्ली-जयपुर राजमार्ग पर गुड़गांव में टोल प्लाजा हटाने का फैसला भी ऐसे ही विवादों से पैदा हुआ है। ऐसे कई विवाद देश भर में राजमार्गो को लेकर हैं। अगर राजमार्गो का सचमुच विस्तार करना है, तो घोटालों के रास्ते बंद करना जरूरी है।
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राजमार्ग का विस्तार


केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि राज्यों की 7,200 किलोमीटर सड़कों को राष्ट्रीय राजमार्ग में शामिल किया जाए। इस तरह राष्ट्रीय राजमार्गो की कुल लंबाई लगभग 87,000 किलोमीटर हो जाएगी। यह आंकड़ा देश के क्षेत्रफल और आबादी को देखते हुए बहुत कम है, इसलिए हमें उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाली सरकार भी इस दिशा में ज्यादा सक्रिय होगी। सड़कों की कुल लंबाई के लिहाज से हमारा देश दुनिया में दूसरे नंबर पर है। हमारे यहां चीन जैसे विशाल देश से भी ज्यादा सड़कें हैं, लेकिन अगर सड़कों की गुणवत्ता की बात की जाए, तो हम लोग दुनिया के सबसे पिछड़े देशों में आते हैं। हमारे देश में कच्ची या मौसमी सड़कें ज्यादा हैं, पक्की और चौड़ी सड़कों का अनुपात बहुत कम है। इसमें भी अगर यह जाेड़ लिया जाए कि फोर लेन सड़कों में से कितनी अच्छी स्थिति में हैं, तो यह अनुपात और भी गिर जाएगा। राष्ट्रीय या राज्य राजमार्गो में भी हजारों किलोमीटर सड़कें बुरी हालत में हैं। फिर भी राजमार्ग बन जाने के बाद इस बात की संभावना काफी होती है कि सड़क की स्थिति सुधर जाए, इसलिए जितनी ज्यादा सड़कें राष्ट्रीय राजमार्ग बन जाएं, उतना ही बेहतर होगा। फिलहाल भारत में लगभग 47 लाख किलोमीटर सड़कें हैं, जिनमें से एक लाख किलोमीटर भी राष्ट्रीय राजमार्ग नहीं हैं।
सड़कों का निर्माण और विस्तार लंबे वक्त तक भारतीय प्रशासन तंत्र की प्राथमिकताओं में नहीं रहा। भारत में वाहन उद्योग पर कड़े प्रतिबंध थे, इसलिए न वाहनों की तादाद ज्यादा बढ़ती थी, न सड़कों का विस्तार होता था। जब भारत में वाहन उद्योग का उदारीकरण हुआ और सड़कों पर ज्यादा वाहनों का दबाव महसूस होने लगा, तब सड़कों को आधुनिक बनाने की भी जरूरत महसूस हुई। इस नजरिये से अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में काफी तरक्की हुई, क्योंकि प्रधानमंत्री खुद इसमें दिलचस्पी ले रहे थे। देश के चारों महानगरों को राजमार्गो से जोड़ने की स्वर्णिम चतुर्भुज योजना इसी दौरान शुरू हुई। मगर संप्रग के राज में राष्ट्रीय राजमार्गो के विस्तार की गति धीमी पड़ गई, हालांकि कई राज्यों ने अपने यहां बेहतर सड़कें बनाने को प्राथमिकता दी। चूंकि ‘बीएसपी’ यानी बिजली-सड़क-पानी कई चुनावों में मुख्य मुद्दे बनकर आए, इसलिए भी सरकारों पर सड़कें बेहतर बनाने के लिए दबाव पड़ा। सड़कें बनाना अर्थव्यवस्था को तेज करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। सड़क निर्माण से खनन, सीमेंट, इस्पात जसे उद्योगों को भी प्रोत्साहन मिलता है और बड़े पैमाने पर कुशल और अकुशल रोजगार पैदा होते हैं। मगर सड़कों का विस्तार इसलिए मुश्किल भी है, क्योंकि इससे जमीन अधिग्रहण और पर्यावरण की पेचीदा उलझनों से गुजरना पड़ता है। इसीलिए अगर इस ताजा घोषणा को छोड़ दिया जाए, तो संप्रग के पूरे कार्यकाल में राष्ट्रीय राजमार्गों में सिर्फ 10,000 किलोमीटर की बढ़ोतरी हुई।
राष्ट्रीय राजमार्गो के निर्माण में इन दिनों निजी-सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) का मॉडल बड़े पैमाने पर अपनाया जा रहा है। लेकिन पीपीपी मॉडल को अगर कामयाब होना है, तो इसमें पारदर्शिता और जवाबदेही जरूरी है। वरना तरह-तरह के विवाद और घोटाले पैदा होंगे। महाराष्ट्र में टोल टैक्स विरोधी आंदोलन भले ही राजनीति से प्रेरित हो, लेकिन यह सरकार को भी मानना पड़ा कि सड़क बनाने और टोल टैक्स वसूलने के अनुबंधों में भारी गड़बड़ियां हैं। दिल्ली-जयपुर राजमार्ग पर गुड़गांव में टोल प्लाजा हटाने का फैसला भी ऐसे ही विवादों से पैदा हुआ है। ऐसे कई विवाद देश भर में राजमार्गो को लेकर हैं। अगर राजमार्गो का सचमुच विस्तार करना है, तो घोटालों के रास्ते बंद करना जरूरी है।
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  अॉटो मोबाइल नियमों में बदलाव होगा


नितिन गडकरी ने कहा
मुंबई। केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने आज कहा है वह अॉटो-मोबाइल नियमों में बदलाव लाना चाहते हैं। दरअसल नितिन गडकरी चाहते हैं कि अॉटो मोबाइल के नियम में थोड़ा बदलाव करके जैव इंधन से चलने वाली कारों के लिए रास्ता साफ किया जाए। उन्होंने कहा कि संसद के अगले सत्र में सरकार कानून में बदलावों लाने का प्रयास करेगी। गडकरी का कहना है कि बदलाव करने की जरूरत है ताकि इसे वैश्विक मानकों के अनुरूप जाया जा सके। संसद सत्र में ऐसे होगा कानून में बदलाव गडकरी ने कहा संसद के अगले सत्र में संशोधिक विधेयक लाएंगे। आपको बता दें कि सरकार ने पहले ही ई-रिक्शा के लिए कानून में जरूरी बदलाव लाने की घोषणा की है। जो दो लाख लोगों के लिए रोजी-रोटी कमाने का जरिए है। इन विदेशी कानूनों का होगा अध्ययन अॉटो मोबाइल कानून में संशोधन के लिए पूर्व प्रतिनिधियों से सुझाव लिए जाएंगे। और प्रतिक्रियाओं का भी स्वागत किया जाएगा। जिसके उन्होंने कहा कि मामले पर कोई नीतिगत निर्णय लेने से पूर्व प्रतिनिधियों के सुझावों पर भी गौर किया जाएगा। गडकरी ने कहा कि मंत्रालय कानून में किसी बदलाव से पहले अमेरिका, कनाडा, ब्राजील और जर्मनी के वाहन अधिनियमों का भी अध्ययन करेगा। इंधन विकल्प भी ग्रामीण विकास मंत्रालय का भी अतिरिक्त प्रभार भी संभाल रहे गडकरी ने कहा कि ईंधन के विकल्प तलाश करने की जरूरत है क्योंकि देश को हर साल ईंधन के आयात पर 6 लाख करोड़ रुपये और खाने के तेल के आयात पर 800 करोड़ रूपए खर्च करने पड़ते हैं। बेकार पड़ी भूमि का होगा उपयोग उन्होंने कहा कि कृषि में विविधता लाने और गांवों में बेकार पड़ी भूमि का बेहतर प्रयोग करने की जरूरत है। एथेनॉल को भिन्न स्रोतों से तैयार किया जा सकता है खासकर कपास की पुआल और गन्ने केे बायोमास से। लेकिन बायोमास का इस्तेमाल बायो डाइजेस्टर सीएनजी तैयार करने में भी किया जा सकता है।
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सीमेंट के बनेंगे राष्ट्रीय राजमार्गः नितिन गडकरी


अब बारिश में हाइवे टूटेगें नहीं। नई सरकार सभी राष्ट्रीय राजमार्ग को सीमेंट का बनाएगी। सीएनबीसी आवाज संपादक संजय पुगलिया से खास मुलाकात में केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने ये जानकारी दी। हालांकि इसके साथ ही उन्होने सीमेंट कंपनियों को कार्टेल नहीं बनाने की चेतावनी भी दी है।
नितिन गडकरी का कहना है कि देश भर में 60,000 करोड़ रुपये के रोड प्रोजेक्ट अटके हैं। अब तक 20,000 करोड़ रुपये के विवाद सुलझाए गए हैं। सभी अटके प्रोजेक्ट अगले 3 महीने में दोबारा शुरू करने का लक्ष्य है। 3 महीने में सभी कॉन्ट्रैक्ट दोबारा शुरू किए जाएंगे। नितिन गडकरी के मुताबिक बैंकों के रोड इंफ्रा के करीब 70,000 करोड़ रुपये के एनपीए हैं।
नितिन गडकरी ने बताया कि रोड, हाइवे के किनारे 200 करोड़ पेड़ लगाए जाएंगे। वहीं राष्ट्रीय राजमार्ग अब सीमेंट और कंक्रीट के ही बनेंगे जिसका ऐलान जल्द किया जाएगा। लेकिन सीमेंट कंपनियों की सांठगांठ रोकने के लिए बिट्रूमन (डामर) की रोड बनाएंगे।
नितिन गडकरी के मुताबिक जमीन अधिग्रहण पर 27 जून को राज्यों के साथ बैठक करेंगे। जमीन अधिग्रहण कानून में संशोधन पर अंतिम फैसला प्रधानमंत्री लेंगे। जमीन अधिग्रहण मामले में मुआवजे को लेकर कोई समझौता नहीं होगा। साथ ही देश के अंदर बड़े पैमाने पर जलमार्ग शुरू करने की योजना है।
नितिन गडकरी ने कहा कि रोड रेगुलेटर से दिक्कतें बढ़ेंगी और मोटर व्हीकल एक्ट को खत्म किया जाएगा। ई-रिक्शा नियमों में बदलाव से गरीबों को फायदा होगा। वहीं अगर महाराष्ट्र सरकार ने कहा तो मुंबई ट्रांस हार्बर लिंक 5 साल में बना सकता हूं। मुंबई ट्रांस हार्बर के लिए केंद्र से फंडिंग का भी इंतजाम करेंगे।
नितिन गडकरी का कहना है कि गंगा-यमुना फिलहाल योजना में है। दिल्ली में यमुना प्लान पर काम चल रहा है। यमुना में यात्री शिप चलाने के अलावा वॉटर स्पोर्ट्स और बोटिंग शुरू करने की योजना है। यमुना के किनारे टूरिज्म बढ़ाने की भी योजना है। वहीं गंगा के प्रति भी समर्पित इच्छाशक्ति है, इलाहाबाद-हल्दिया तक टर्मिनल बनाया जाएगा। वॉटर ट्रांसपोर्ट को बढ़ावा दिया जाएगा और सी-प्लेन शुरू करने की योजना है।
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ई-रिक्शा को नियमित किया जाएगा : गडकरी


नई दिल्ली !   केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने मंगलवार को घोषणा की कि बैटरी से चलने वाली रिक्शा दिल्ली में चलती रहेगी और उन्हें नियमित करने का वादा किया है। रामलीला मैदान में ई-रिक्शा मालिकों की एक रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, "650 वाट के मोटर वाले ई-रिक्शा को गैर मोटरीकृत वाहन के रूप में माना जाएगा। परिवहन विभाग और यातायात पुलिस कल (बुधवार) से इनका चालान नहीं करेगी।"
इससे पहले पूर्व की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के कार्यकाल में सड़क परिवहन एवं राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्रालय ने कुछ प्रावधानों में संशोधन किया था जिससे इस तरह के रिक्शा गैरकानूनी हो गए थे।
24 अप्रैल को जारी एक अधिसूचना के बार दिल्ली सरकार के परिवहन विभाग ने ई-रिक्शा पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया था।
गडकरी ने कहा, "जालसाजी रोकने के लिए ई-रिक्शा किसी अधिकृत विक्रेता से खरीदा जाना चाहिए। सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि किसी भी ई-रिक्शा चालक को पुलिस अधिकारी चालान नहीं करें।"
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बेलगाम ई रिक्शा

Friday,Jul 25,2014

दिल्ली की सड़कों पर दौड़ रहे ई रिक्शाओं को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट का रूख स्वागतयोग्य है। अदालत का यह कहना एकदम दुरुस्त है कि नियमों के दायरे में लाए बगैर ई-रिक्शाओं को राजधानी की सड़कों पर चलाने देने की अनुमति नहीं दी जा सकती। यह सही है कि बड़ी संख्या में लोगों की रोजी-रोटी इससे जुड़ी है लेकिन इस नाम पर सियासत नहीं की जानी चाहिए। राजधानी की सड़कों पर दौड़ रहे लाखों वाहनों के बीच ई रिक्शाओं के उतर आने से यातायात व्यवस्था का बुरा हाल हो गया है। इनकी वजह से सड़क जाम हो रहा है, दुर्घटनाएं भी हो रही हैं। इन दुर्घटनाओं में कुछ लोगों की जान भी जा चुकी है। ई रिक्शा को लेकर कानूनी स्थिति बेहद लचर है। चूंकि यह मोटर वेहिकल एक्ट के तहत नहीं आता, लिहाजा इसके खिलाफ यातायात पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर रही। चिंताजनक बात यह है कि यदि इसकी चपेट में आने से किसी की मौत हो जाए, तो उसके परिजनों को कोई मुआवजा भी नहीं मिल सकता। दिल्ली की सड़कों पर वाहनों के भारी दबाव के मद्देनजर यह बहस भी चलती रही है कि यहां रिक्शों के परिचालन की अनुमति होनी चाहिए अथवा नहीं। गरीबों के रोजगार का आसान साधन बताकर रिक्शों के परिचालन की वकालत की जाती है। अब ई रिक्शाओं को लेकर भी ऐसी ही दलीलें दी जा रही हैं। लेकिन ऐसी दलीलों को आधार बनाकर पूरे शहर की सड़कों पर यातायात को चरमराने नहीं दिया जा सकता। लेकिन सियासी लोग इस मुद्दे को राजनीतिक रंग देने पर तुले हैं। ऐसे वक्त में अदालत का कड़ा रूख केन्द्र व दिल्ली दोनों ही सरकारों के लिए एक स्पष्ट दिशा-निर्देश की तरह है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि इन्हें बेलगाम दिल्ली की सड़कों पर चलाए जाने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। यदि इन्हें ऐसे ही दौड़ने दिया गया तो आने वाले दिनों में शहर की समस्याएं और बढ़ेंगी। ई रिक्शा अभी ही हजारों की संख्या में दिखाई दे रहे हैं। आने वाले दिनों में इनकी संख्या में और इजाफा होगा और सड़कों पर स्थिति बेकाबू हो जाएगी। दुर्घटनाओं में इजाफा होगा और सहूलियत के बदले इनसे मुसीबत बढ़ेगी। लिहाजा, दिल्ली सरकार को चाहिए कि वह अदालत के आदेश के मद्देनजर त्वरित कार्रवाई करते हुए इन्हें नियमों के दायरे में लाए अथवा इनका परिचालन तत्काल बंद करे।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]
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बैरियर पर सतर्कता

Thu, 02 Oct 2014

अलग-अलग प्रदेशों से लगती पंजाब की सीमा पर स्थित बैरियरों पर कार्यरत डाटा एंट्री ऑपरेटरों द्वारा गड़बड़ी करना गंभीर मामला है। आरोपी चार ऑपरेटरों का निलंबन तो जरूरी था ही, इसके साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि इतनी संवेदनशील जगह पर वसूली का गोरखधंधा कैसे वे चला रहे थे। प्रदेश की सीमा में प्रवेश के समय आबकारी एवं कर विभाग की ओर से बैरियर पर इसीलिए चेकिंग की व्यवस्था है जिससे कोई अवैध व्यापार न हो। यहां पुलिस भी मुस्तैद रहती है कि असामाजिक तत्व किसी अवैध सामान के साथ प्रदेश के अंदर न प्रवेश कर जाएं। पंजाब में नशे की समस्या विकराल रूप धारण कर गई है। पड़ोसी राज्यों खासकर हरियाणा व राजस्थान से नशे की तस्करी की खबरें बीच-बीच में सामने आती रहती हैं। कई बार तो भारी मात्रा में नशा बरामद किया जाता है। इसके अलावा त्योहारी सीजन में मिलावटी खाद्य पदार्थो का कारोबार भी जोर पकड़ लेता है। हरियाणा की सीमा पर स्थित शंभू बैरियर पर तो इस सीजन में हर साल सैकड़ों किलो मिलावटी खोआ पकड़ा जाता है। चाहे नशीले पदार्थ का मामला हो या फिर मिलावटी खाद्य पदार्थ का, इससे प्रदेश वासियों की सेहत खतरे में पड़ती है। नशे ने तो प्रदेश में बड़े पैमाने पर युवा वर्ग को इस तरह खोखला कर दिया है कि सेना से लेकर पुलिस की भर्ती तक में इसका असर दिखना शुरू हो गया है। कुछ साल पहले तक सेना भर्ती रैली में पंजाब के गबरुओं का कोई सानी नहीं था पर अब वे दौड़ में ही हांफ जाते हैं। यह स्थिति चिंताजनक है। सरकार को बैरियर पर और सतर्कता बरतने की जरूरत है। ऐसी संवेदनशील जगहों पर तो इस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए कि किसी भी प्रकार की गड़बड़ी करने वाला तुरंत पकड़ में आ जाए। सस्पेंड किए गए एंट्री ऑपरेटरों पर 15 रुपये वाली रसीद की जगह 250 रुपये वसूलने का आरोप है। हेल्पलाइन नंबर पर शिकायत मिलने के बाद विभाग ने यह कार्रवाई की है। ऐसे ऑपरेटर अवैध वसूली कर कुछ भी प्रदेश की सीमा में प्रवेश करवा सकते हैं। सवाल यह भी है कि जब ये इस तरह का काम कर रहे थे तो शंभू, जीरकपुर, हरसामनसा व सीताहोनो बैरियरों पर तैनात पुलिस को इसकी भनक क्यों नहीं लगी। इस गड़बड़ी के सामने आने के बाद पूरे मामले की गंभीरता से जांच के साथ ही बैरियरों पर तत्काल सतर्कता बढ़ाई जानी चाहिए।
[स्थानीय संपादकीय: पंजाब]
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यातायात नियमों का उल्लंघन

Thu, 02 Oct 2014

मंदिरों के शहर जम्मू में बढ़ते यातायात के अनुरूप सड़कों का विस्तार न होने से दुर्घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। वहीं यातायात विभाग भी ट्रैफिक को सुचारु बनाने के लिए नियमों का पालन करवाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहा है। केवल व्यस्त बिक्रम चौक व गांधी नगर के गोल मार्केट चौक में ही ट्रैफिक कर्मी मुस्तैदी दिखाते हुए मिलेंगे। शहर के ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां पर ट्रैफिक कांस्टेबलों की अनुपस्थिति वाहन चालकों को भी मनमर्जी करने का मौका दे रही है। यह अच्छी बात है कि बिक्रम चौक से गांधीनगर के बीच एक फ्लाई ओवर का निर्माण किया जा रहा है, जिससे काफी हद तक यातायात को सुचारु बनाने में मदद मिलेगी, लेकिन शहर में अखनूर रोड, केनाल रोड, नरवाल, सतवारी, जानीपुर हाईकोर्ट रोड आदि ऐसे कई और इलाके हैं जहां पर अक्सर जाम की स्थिति बनी रहती है। दुख की बात यह है कि इन क्षेत्रों में यातायात को नियंत्रित करने के लिए सरकार के पास कोई दूरगामी योजना नहीं है। न तो इन इलाकों में सड़कों का विस्तारीकरण हुआ है और न ही फ्लाई ओवर जैसी कोई ठोस योजना बनी है। वहीं केवल जम्मू संभाग में ही हर साल करीब एक लाख गाड़ियां रजिस्टर्ड हो रही हैं। जब तक वाहनों के अनुपात में सड़कों का विस्तार नहीं होगा तब तक दुर्घटनाओं के मामले और बढ़ेंगे तथा जाम की स्थिति से लोगों को दो-चार होना पड़ेगा। ट्रैफिक विभाग को अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव लाना होगा क्योंकि यातायात को नियंत्रण करने में इस विभाग की अहम भूमिका है। इसके लिए ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करने वालों से सख्ती से निपटा जाए। साथ ही ट्रैफिक नियंत्रण करने वाले नियमों जिनमें वाहनों पर रिफलेक्टर, हेड लाइट्स पर ब्लैक स्ट्रिप, ट्रैफिक लाइट का पालन होना आवश्यक है। अक्सर देखा गया है कि ट्रैफिक कर्मी कुछ चौराहों पर अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए खड़े होते हैं, लेकिन उनकी कार्रवाई केवल कामर्शियल वाहनों तक ही सीमित होती है। अगर ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करने वाले निजी वाहन चालकों पर कार्रवाई हो तो उससे भी ट्रैफिक को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
[स्थानीय संपादकीय: जम्मू-कश्मीर]
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उचित फटकार

Sun, 19 Oct 2014

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का स्कूली बसों की जांच डीटीओ से करवाने का आदेश सरकार को आइना दिखाने वाला है। पंजाब सरकार स्कूली बच्चों की सुरक्षा को लेकर कितनी गंभीर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरकार ने दस माह पूर्व पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में हलफनामा दायर कर बताया था कि रोड सेफ्टी नीति का खाका तैयार कर लिया गया है, परंतु आज भी सरकार रोड सेफ्टी नीति नहीं बना सकी। यही कारण है कि गत दिवस हाईकोर्ट ने प्रदेश सरकार को फटकार लगाते हुए अगली सुनवाई पर इस नीति के बारे में जानकारी देने को कहा है। प्रदेश की सड़कों पर स्कूली बस में आने-जाने वाले बच्चों की जिंदगी कितनी सुरक्षित है इसका अंदाजा तो आए दिन होने वाले हादसों से आसानी से लगाया जा सकता है। हाल-फिलहाल तो ये हादसे और बढ़ गए हैं। इन हादसों के पीछे निश्चित रूप से लापरवाही ही सबसे बड़ा कारण है। पिछले दिनों हुए हादसों में कभी यह सामने आया कि स्कूल बस में कंडक्टर नहीं था, किसी में सीट बेल्ट नहीं थी तो कहीं स्कूल बस बिना किसी टीचर के ही बच्चों को छोड़ने जा रही थी। हैरानी की बात यह है कि ऐसा तब हो रहा है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में स्पष्ट दिशानिर्देश जारी कर रखे हैं। ऐसा कदाचित इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकार व प्रशासन ने स्कूलों, खासकर निजी स्कूलों पर नजर रखना संभवत: छोड़ दिया है। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि गत दिवस प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट को यह बताया कि बसों से स्कूल जाने वाले बच्चों की सुरक्षा के लिए सरकार ने सेफ स्कूल वाहन नीति बनाई है और इसके तहत स्कूल प्रबंधन को ही स्कूल बसों को तय प्रावधानों के तहत चलाए जाने की जिम्मेदारी दी गई है। जिस प्रकार से स्कूल बसों में अनियमितताएं सामने आ रही हैं उससे तो यही प्रतीत होता है कि स्कूल प्रबंधन अपना काम सही ढंग से नहीं कर रहे हैं। सरकार को अतिशीघ्र रोड सेफ्टी नीति तो बनानी ही होगी, साथ ही हाईकोर्ट के आदेशों का पालन भी सुनिश्चित करना चाहिए, क्योंकि बात जब मासूम स्कूली बच्चों की सुरक्षा की हो तो लापरवाही की कहीं कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए।
[स्थानीय संपादकीय: पंजाब]
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फर्जी लाइसेंस

]Tue, 21 Oct 2014

परिवहन विभाग में व्यावसायिक वाहनों के लाइसेंस के फर्जीवाड़े की घटना ने एक बार फिर विभागीय कार्यशैली को कठघरे में खड़ा किया है। जिस प्रकार से फर्जी दस्तावेजों के आधार पर चार सौ से अधिक लाइसेंस जारी किए गए उससे दलाल व विभागीय कर्मचारियों के बीच मिलीभगत के आरोपों पर मुहर लगती है। दरअसल, परिवहन विभाग में दलाल प्रथा बुरी तरह हावी है। आम आदमी को भले ही परिवहन विभाग में एक लाइसेंस बनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़े लेकिन ऐसा कोई काम नहीं जिसका हल इन दलालों के पास न हो। इन दलालों की विभाग के भीतर इतनी गहरी पकड़ है कि चुटकियों में ही इनके सभी कार्य हो जाते हैं। ये हालात तब हैं जब विभागीय मंत्री से लेकर अधिकारी तक विभाग में दलाली प्रथा पर अंकुश लगाने की बात कह चुके हैं। दरअसल, परिवहन विभाग में दलाल प्रथा दशकों से हावी है। आलम यह है कि परिवहन कार्यालय में घुसने से पहले ही आमजन को इन दलालों से दो चार होना पड़ता है। लचर विभागीय कार्यशैली के चलते आमजन को मजबूरन इन दलालों का सहारा लेना पड़ता है। दलालों और कर्मचारियों का यह रिश्ता इतना गहरा है कि फर्जीवाड़ा करते हुए किसी को कानों कान खबर तक नहीं होती। परिवहन विभाग में कंप्यूटराइज्ड व्यवस्था होने के बाद वर्षो से विभाग में चल रहे फर्जीवाड़े की एक के बाद एक परतें खुलकर सामने आ रही हैं। जिस प्रकार से फर्जी कागजातों के बूते इतने अधिक संख्या में व्यावसायिक लाइसेंस जारी हुए, इससे यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि विभाग में फर्जीवाड़ा सिर चढ़ कर बोल रहा है। मामला गंभीर इसलिए है कि ये लाइसेंस व्यवसायिक वाहनों के लिए जारी हुए हैं। यदि लाइसेंस गलत लोगों को जारी हो गए तो कहा जा सकता है कि आमजन की जिंदगी अनाड़ियों के हाथों सौंप दी गई। कारण, इसी लाइसेंस के आधार पर ये लाइसेंसधारक यात्री अथवा मालवाहक वाहन चलाएंगे। इससे भी गंभीर यह है कि विभाग इस मामले मे रिपोर्ट तक दर्ज करने से बचता रहा है। इस मसले को गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। आलम यह है कि अब राजनीतिक व्यक्तियों और अधिकारियों के रिश्तेदारों को ही विभाग में बैकडोर एंट्री देकर इस परिपाटी को आगे बढ़ाया जा रहा है। सरकार यदि सही मायनों में भ्रष्टाचार रोकने के प्रति कटिबद्ध है तो इस ओर गंभीरतापूर्वक कदम उठाने होंगे। विभाग में दलाल प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए ठोस नीति बनानी होगी। दलालों को लाइसेंस देने के लिए एक बार जो नीति बनाई गई थी उस पर फिर से मंथन किया जाना चाहिए। आमजन को विभाग में सुविधाएं देने के किए जाने वाले दावों को धरातल पर उतारने की जरूरत है। इस बात पर फोकस किए जाने की भी जरूरत है कि कर्मचारियों का संवाद जनता से हो न कि दलालों से। सरकार को इसके लिए सीधे अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करनी होगी, नहीं तो विभाग में इस तरह का फर्जीवाड़ा आगे नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड]
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गरीब देश को अमीर बनाने वाला है बजट


बजट में मेरी लगभग सौ फीसद मांगों को मान लिया गया है। कुछ में तो अपेक्षा से अधिक आवंटन मिला है। इसके लिए मैं वित्त मंत्री का शुक्रगुजार हूं। यह अर्थव्यवस्था व रोजगार को बढ़ाने वाला क्रांतिकारी बजट है। इसमें किसान, ई-गवर्नेस व टेक्नोलॉजी पर जोर है। यह अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप और गरीब देश को अमीर बनाने के लिए है।
ग्रामीण विकास व सड़कों के लिए 55-60 फीसद धन मिला है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना को 14,389 करोड़ मिलने से अब रुका काम तेज होगा। महिला सेल्फ हेल्प ग्रुप को सस्ते कर्ज का लाभ अब 250 जिलों को मिलेगा। ग्रामीण उद्यमिता कार्यक्रम को बल मिलने से लाखों ग्रामीणों को रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे। गांवों में आवास निर्माण के लिए एनएचबी को 8000 करोड़ रुपये का आवंटन अपेक्षा से अधिक है। वाटरशेड के तहत चेकडैम बनाने की ‘नीरांचल योजना’ भी जोरदार है। 27 राज्यों के 272 पिछड़े आदिवासी जिलों के लिए बीआरजीएफ में मदद बढ़ाई गई है। स्वच्छ पेयजल के लिए 3600 करोड़ मिले हैं। हालांकि जरूरत बहुत बड़ी है, जिसे पूरा करने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर बांड जैसा प्रस्ताव हो सकता है।
सड़कों के लिए 37 हजार करोड़ आवंटन के साथ 3पी इंस्टीट्यूट का प्रावधान किया गया है। बांड के रूप में दो फीसद ब्याज पर पैसा खड़ा होगा। कल ही हमने 16 हजार करोड़ रुपये की राजमार्ग परियोजनाएं क्लियर की हैं। इससे पहले चालीस हजार करोड़ की परियोजनाओं की अड़चनों को दूर किया जा चुका है। शेष 1.89 लाख करोड़ की 181 परियोजनाओं की बाधाओं को भी जल्द ही दूर कर दिया जाएगा। लगभग दो साल में प्रतिदिन 30 किलोमीटर सड़कें बनने लगेंगी। इससे डेढ़-दो साल में जीडीपी में डेढ़-दो फीसद का इजाफा होगा।
गंगा में इलाहाबाद से हल्दिया तक 1620 किलोमीटर जलमार्ग के विकास के लिए 4200 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इससे नदी को कम से कम 45 मीटर चौड़ा व पांच मीटर गहरा किया जाएगा। साथ ही, 23 जगहों पर छोटे-बड़े टर्मिनलों का निर्माण किया जाएगा, जहां किनारे होटल, रेस्त्रां, हैंडलूम व हस्तशिल्प केंद्र आदि खुलेंगे। बंदरगाह क्षेत्र में 80 हजार करोड़ का नया निवेश आएगा। भारत में बड़े पैमाने पर शिप बिल्डिंग का काम शुरू होगा।